Cart

Book Detail

Quick Overview इन्द्रियों पर अनुभवों का अतिक्रमण या कहिये की संक्रमण, दिन भर आवेग और आवेश को काबू में रख, संयम बरतने के बाद, अकेलेपन, एकाकीपन में सैलाब का उमड़ना, विषयों का रूपांतर होना, भावों का रस बन कर अभिव्यक्त होना ही मेरे काव्य का सार है। जैसा की नाम से प्रतीत होता है, वैसे ही यथातथ्य, रोजमर्रा की जिन्दगी के उतर चढाव, सीधे ह्रदय से निकल आप के सम्मुख प्रस्तुत है । जो जैसा दिखता है वैसा ही वर्णित है ।

ISBN: 9788193430200

Available As
Price
 
Print
Binding: Paper back
$ 15.70
Add to Wishlist
स पर्यगाच्छुक्रमकायमब्रणम अस्नाविरम शुद्धम्पापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतोर्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।
एकमात्र ब्रह्म सर्वव्यापक है, वो कण कण में स्थित है और उसमें सम्पूर्ण जगत, वो सारे जगत का उत्पत्ता है, उसका शरीर विकारो से रहित, स्नायुविक अर्थात तन, मन व आत्मिक बंधनों से मुक्त, पापरहित, पवित्र, सूक्ष्मदर्शी, आदि-अंत रहित अनादि, मनीषी, सब कुछ जानने वाला, सर्वज्ञ, स्वयंभू है। उस ब्रह्म ने सदैव, अनादि काल से ही, सभी के लिए कर्मों के अनुसार यथातथ्य उचित व्यवस्था व फल का विधान किया है। ब्रह्म ही इस जगत में सबका विधान करते
हैं और जिसका जैसा कृत्य हो वैसे ही फल का विधान करते है । सामाजिक घटनाओ की प्रकृति जटिल तथा परिवर्तनशील होती है, यह घटनायें हृदय को छू,
जीवन पर एक गहरा निशान छोड़ती हैं। लगभग रोज ही इस स्वतंत्र समाज का स्वच्छंद व्यक्ति कभी टिप्पणी कर देता है, तो कभी आलोचना, अब ऐसे में कवि हृदय व्यथित न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। कभी उसे प्यार भी मिलता है, कभी भगवान् की भक्ति भी दिल में उमड़ती है, तो कभी प्रकृति प्रेम। मनोभावों की इस जटिल उथल-पुथल को कैद करने का एक प्रयास है ‘यथातथ्य’। यथातथ्य, ईमानदार है, सत्य है और विश्वस्त भी।
दिल की गहरायी से उतर कर सीधे कागज के पन्नों पर, ज्यों का त्यों, जा उतरा है यह काव्य संकलन। यहाँ कोई बनावट नहीं, जो जैसा है वैसा है, जब जो भाव आये कागज पर उकेर दिए। यहाँ प्यार का इज़हार भी है और टूटे दिल के तार भी, भक्ति भी है, और छल-कपट, विश्वासघात और धोखा भी, जब जब दिल ने जो जज़्बात महसूस किये वो उसी समय बाहर आ गये, ‘यथातथ्य’।
किसी भी रचना में चित्रण को संतुलित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया, भावों का यथातथ्य सामना करते हुए बेधड़क लेखन की एक कोशिश, आलोचकों की आलोचना का विचार किये बिना, बेहद सजीव चित्रण, यथातथ्य वर्णन की कोशिश की गयी है। कवि की यथादृष्ट, यथाबुद्धि, यथाभिप्रेत, यथार्थ, लेखन यानि यथातृप्ति।
‘यथातथ्य’ बिम्ब भी है और बिम्ब विधान भी। कविता की जीवन्तता में प्राणशक्ति है, यथातथ्य। काव्यात्मक बिम्ब एक संवेदनात्मक चित्र है जो रूपात्मक, भावात्मक और आवेगात्मक है। संश्लेष को, समय के किसी एक बिन्दु पर स्थिर करता है ‘यथातथ्य’। अज्ञेय के शब्दों का आविष्कार से लेकर आविष्कृति तक, सबकुछ है ये ‘यथातथ्य’। कालिदास के शब्दों में अगोचर ”तत्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व“ है, अवबोधन की स्मृति है ‘यथातथ्य’। कबीर की लेखनी भी है यथातथ्य। यथातथ्य सृजन होते हुए भी नहीं है, काल्पनिक होते हुए भी कल्पना नहीं है, केवल सत्य ही नहीं, लेखनी के प्रति सत्यनिष्ठ हैए ‘यथातथ्य’।
क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी
यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही
जयशंकर प्रसाद ने कानन कुसुम में लिखा कि क्या भाषा और भाव अपूर्ण रह जाते यदि भाव यथातथ्य प्रकटित नहीं हो सकते, शायद हाँ, या फिर शायद नहीं। वैदेही वनवास में हरिऔध लिखते हैं ”आशा है अब अन्य उठाएंगे न शिर। यथातथ्य हो गया शमन उत्पात का।।“
इस संकलन में कलयुग की व्यथा है, जहाँ अधर्म सर्वोपरि है, तो कहीं कवि ह्रदय भावो को रंगों में देखता है, कभी गुस्से में लाल, तो कभी शोक में नीला, और डर में पीला। कभी ह्रदय उदास है तो कभी अधंकार दूर करने को अनुष्का का इंतजार है। कहीं ज़िन्दगी के अंधकार पर ज्ञान का ज्ञानोदय है, तो कहीं समय से टकराव है। कहीं कर्म फल का हिसाब है, तो कहीं प्रेयसी का इंतजार, प्रणय की वेदना भी है, कामुकता की ज्वाला भी, जूनून भी है, और निस्तेजिता भी।
तन्हाईयों के गीत भी हैं तो चाँद की ख्वाइश भी, झील के उस पार चाँद की झिझक भी है तो चाॅदनी के चोरी होने का डर भी। सत्य दिखाता पीठ में छुरा भी यहीं है, और चिता को आग देता खुदगर्ज़ इंसान भी। आत्मनीय, हृदयविदारक किन्तु ईमानदार आनन्ददायी रचनाओं का संग्रह है ‘यथातथ्य’।

Manoj Pandey

डा. मनोज पाण्डेय का जन्म १ मई १९६६ में सहारनपुर में हुआ| वे अपने परिवार में सबसे छोटे थे| उनकी प्रारंभिक शिक्षा सहारनपुर, भटिंडा एवं दिल्ली में हुई| १९८५ में आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में डाक्टरी की पढाई के लिए गए, आपने एम. बी.बी. एस १९८९ में उत्तीर्ण करने के पश्चात सर्जरी में मास्टर्स डिग्री हासिल की|

१९९६ में आपने कैंसर शल्य में अधिसदस्यता गुजरात कैंसर अनुसन्धान केंद्र से प्राप्त की| उसी साल आप प्रादेशिक कैंसर केंद्र थिरुवनंतपुरम में व्यख्याता के पद पर पदस्त हुए|

मार्च २००५ तक सेवा के पश्चात डा पाण्डेय भोपाल के जवाहरलाल कैंसर अस्पताल में कुछ समय कार्य करने के बाद पुनः अपनी कर्मभूमि, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की ओर अग्रसर हो गए|

२००५ से २०१३ तक कैंसर शल्य विभाग में पदस्थ हो अपनी सेवा प्रदान करते रहे| २००७ से वे इस विभाग में विभागाध्यक्ष भी रहे|

२०१३ जुलाई में डा पाण्डेय की नियुक्ति भिपल स्मारक अस्पताल एवं अनुसन्धान केंद्र, जो भोपाल गैस त्रासदी के पीडितों की सेवा के लिए स्थापित किया गया है, के निदेशक के पद पर हुई| उन्हें राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य अनुसन्धान संसथान के निदेशक का अतिरिक्त भार भी प्रेषित किया गया|

कई प्रतिष्टित पुरुस्कारों से सम्मानित डा पाण्डेय ने अपने कार्य क्षेत्र में उल्लेखनीय शैक्षिक एवं वैज्ञानिक योगदान दिए है| डा पाण्डेय बहुमुखी प्रतिभा के धनि है|

अत्यंत कलात्मक व्यक्तित्व एवं जमीन से जुड़े परिश्रमी कार्य क्षमता रखने वाले, डा मनोज पाण्डेय एक सफल चिकित्सक होने के साथ दार्शनिक, विचारक, कवि, लेखक, छायाकार और प्रकृति प्रेमी भी हैं|

Share It

Customer Reviews
Write Your Own Review
Write Your Own Review
Banner Ad

Latest Reviews