श्री अनुराग तिवारी की सशक्त एवं समभाव लेखनी की जितनी प्रशंसा की जाये वह कम है। हमीरपुर में जन्मे श्री तिवारी पेशे से सनिधि लेखाकार हैं। आपको साहित्य एवं लेखन का अत्यधिक शौक है। अंतरावलोकन आप की पहली पुस्तक है और इस पुस्तक में आपने बहुत ही सरल शब्दों में अपने अंतरमन को खोल कर पाठकों के सामने रख दिया है।
पुस्तक की शुरुआत सरस्वती वंदना के साथ हुई है। सरस्वती शिक्षा, विद्या और कला की देवी हैं और आपकी वंदना से अपनी पहली पुस्तक का आगाज़ सुखद है। श्री अनुराग तिवारी का मातृ प्रेम उनकी अगली दो कविताओं में झलकता है। "माँ, तेरी गोदी में सिर रख, फिर रोने को दिल करता है।" इन पंक्तियों को पढ़ने पर हृदय अभिभूत हो उठता है। "मन मुदित नाचे आज है" जीवन में प्रियतम के आगमन पर अथवा जीवन में प्रियतम की सन्निकटता का अनुभव करने पर हृदय के आनन्दित होने का संकेत देती है। श्रृंगार रस से भरपूर यह कविता जहाँ दिल को छू जाती है वहीं गज़ल - "बंधनों से..." कवि की मजबूरियों को बयाँ करने के साथ साथ बन्धनों को तोड़ डालने की इच्छा भी व्यक्त करती है। चूंकि लेखक वाराणसी से हैं और बनारसी होने के कारण माँ गंगा से विशेष लगाव है, इसीलिये शायद आपने गंगा चालीसा की रचना की है। आपकी कविताएँ "बचपन", "जब तक साँसें हैं", "मैं निडर हूँ", "अक्सर ही ऐसा होता है" एवं "अपनी सीमाओं को हमने" आपके अन्तर्मन की हलचल बयाँ करती हैं। इन कविताओं से पाठकों को यह अहसास होगा कि आपका अन्तर्मन दर्पण की तरह उनके सामने है और उसकी कसा-कसी और बेचैनी शब्दों में पिरो दी गयी है।"अति उत्तम" कहने के सिवाय मेरे पास अन्य कोई शब्द नहीं है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आपका यह कविता संकलन पाठकों को बहुत पसंद आयेगा। हमें आपकी दूसरी पुस्तक का इन्तज़ार रहेगा।
Anurag Tiwari
मेरा जन्म ९ मई, १९७० को
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले में हुआ। पिताजी स्व. राम प्यारे तिवारी वरिष्ठ पी.सी.एस. अधिकारी थे। माताजी स्व. सुशीला देवी अत्यंत सहज, सरल व धार्मिक विचारों वाली महिला थीं।
मेरी सम्पूर्ण शिक्षा वाराणसी में हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.काम.(ऑनर्स) करने के बाद चार्टर्ड एकाउन्टैन्सी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद से
वाराणसी में बतौर चार्टर्ड एकाउन्टैन्ट प्रैक्टिस कर रहा हूँ।
साहित्य के प्रति मेरी रुचि बचपन से ही
रही। साहित्य की सभी विधाओं में कविता ने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया। अपनी
छन्दोबद्धता, लय, गेयता और आलंकारिक भाषा के कारण कविता सहज ही किसी व्यक्ति के दिलो दिमाग में
उतर जाती है और उसके होठों से समय असमय फूट पड़ती है।
मुझे याद पड़ता है कि जब मैं कक्षा ४ में
पढ़ता था, उस समय मैने छोटी छोटी तुकबन्दियाँ लिखनी शुरू कीं। माता, पिता, परिवार के
सदस्यों, गुरुजनों और मित्रों से मिले प्रोत्साहन के फलस्वरूप यह कारवाँ धीरे धीरे आगे
बढ़ने लगा। इस क्रम में मैं अपने छोटे जीजा जी डा. सुशील कुमार शुक्ल का विशेष आभार व्यक्त करना चाहूँगा, जिनकी
प्रेरणा और मार्गदर्शन मुझे बचपन से आजतक लगातार प्राप्त हो रहा है।
मैं कवि नहीं हूँ। इस सृष्टि में सृजन
करने वाला एकमात्र ईश्वर है - कवि: मनीषी परिभू: स्वयंभुव। कभी कभी वह सृजन के लिए हमको
आपको माध्यम बना लेता है। प्रभु कृपा व बड़ों के आशीर्वाद से मैने जो कुछ भी लिखा
है, उसमें से
कुछ कविताएँ आप लोगों के सामने प्रस्तुत हैं।